
Ganga and her people – 2
NK SINGH
Published in Amar Ujala of 30 January 2022
एक लम्बे अरसे तक बिहार के जलमार्ग आवागमन के मुख्य संसाधन थे. इन नदियों में तब माल ढोने से लेकर यात्रिओं के आवागमन तक के लिए नावों के बेड़े चला करते थे। प्रसिध्द पत्रकार बी.जी.वर्गीज़ के मुताबिक एक समय ऐसा था जब अकेले पटना में ही ६२,००० नौकाएं रजिस्टर्ड थीं. तरह-तरह की नौकाएं. और तरह-तरह के यात्री.
यह तो सबको मालूम है कि १८५७ की क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर को देश निकाला दिया था और उस बदनसीब बूढ़े को कू-ए-यार में दफन होने के लिए दो गज जमीन भी नहीं मिली। पर लाल किले से कैसे उन्हे ले जाया गया था “उजड़े दयार” बर्मा तक?
इतिहासकार विलियम डैलरिम्पल ‘लास्ट मुग़ल’ में लिखते हैं कि ७ अक्टूबर १८५८ को तड़के चार बजे अंग्रेजों ने नजरबंद बादशाह को एक बैलगाड़ी में लाद कर लाल किले से निकाला। फिर उन्हे इलाहाबाद होते हुए मिर्जापुर ले जाया गया। वहाँ से स्टीमर से कलकत्ता। और फिर पानी के जहाज से रंगून।
१८३४ में ही इलाहाबाद से राजधानी कलकत्ता के लिए स्टीमर सेवा चालू हो गयी थी, जो १९१३ तक चली. बंगाल के दिघा घाट से बक्सर तक भी स्टीमर चलते थे। बहुत कम लोगों को याद होगा कि १९५७ तक पटना से कलकत्ता के लिए नियमित स्टीमर सेवा चला करती थी, जो रास्ते में मुंगेर और भागलपुर में रूकती थी.

तीन आने लबनी ताड़ी
पहलेजा घाट से पटना के लिए दो तरह के स्टीमर चलते थे. एक तो रेलवे के जहाज थे, जो पटना में महेन्द्रू घाट पर लगते थे. बच्चा बाबू के स्टीमर बांस घाट पर उतारते थे. जहाजों के आने और जाने का समय तो तय था, पर वे घाटगाड़ी के हिसाब से खुलते थे. रेलगाड़ी लेट तो स्टीमर भी लेट.
रेलवे के जहाज ज्यादा आरामदेह होते थे. कई लोग आज भी उनके चमचमाते हुए पीतल और ताम्बे की फिटिंग याद करते हैं. मित्रवर संजीव तुलस्यान को ऊपरी डेक पर लगे डेक चेयर की याद है. उनका ख्याल है कि जिसे भी वह कुर्सी मिल जाती थी, अपने आप को बादशाह समझने लगता था.
रेणु मैला आँचल में लिखते हैं – “आस-पास के हलवाहे-चरवाहे भी इस वन में नवाबी करते हैं. तीन आने लबनी ताड़ी, रोक साला मोटरगाड़ी. अर्थात ताड़ी के नशे में आदमी मोटरगाड़ी को भी सस्ता समझता है.” स्टीमर का डेक भी नवाबी तड़बन्ने से कम नहीं था.
मेरे लिए महेन्द्रू घाट का एक आकर्षण वहां दूसरी मंजिल पर बना रेल्वे कैफ़ेटेरिया था. उस कैफेटेरिया से गंगा का विहंगम सौन्दर्य दिखता था. कई दफा कॉलेज से तड़ी मारकर वहां जाते थे. नदियों के अनंत सौंदर्य का वर्णन करते वर्ड्सवर्थ के प्रसिद्ध सॉनेट क्लासरूम में सिर के ऊपर से गुज़र जाते थे। पर गंगा किनारे पहुँचते ही समझ में आने लगता था कि नाविकों के गीत इतना दार्शनिक क्यों होते हैं।

ओ रे मेरे मांझी, अबकी बार . . .
कैफेटेरिया के आकर्षण की एक और खास वजह थी. कई दफा मुझे अपने प्रिय लेखक रेणु वहां बैठे हुए मिले थे, खासकर बारिश के दिनों में जब नदी का दूसरा किनारा कहीं नजर नहीं आता था. अकेले बैठे. चाय की चुस्कियां लेते वे गंगा को निहारते रहते थे. आज मैं समझ सकता हूँ कि उन्हे वह जगह क्यों भाती होगी।
रेणु प्रकृति से जन्मजात आभिजात्य थे। अपने गाँव औराही हिंगना में बैठकर वे ब्रिटानिया कंपनी के थिन अरारोट बिस्किट और कलकत्ते की एक प्रसिद्ध बेकरी की पावरोटी के लिए बैचेन रहते थे।
महेन्द्रू घाट का रेल्वे कैफ़ेटेरिया जहाज खुलने के बाद बाद निर्जन हो जाता था। एकांत पर साफ़-सुथरी, खुली हुई जगह, जहाँ सफ़ेद वर्दी में लैस बेयरे करीने से ट्रे में चाय लेकर आते थे – चाय अलग, दूध अलग, गरम पानी से धोई चीनी मिट्टी की प्यालियाँ. बेहतरीन कटलेट भी मिलता था, और अंडे का पोच.
टीबी और पेट रोग के पुराने मरीज रेणु अपने जीवनकाल में कई दफा पटना मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में भर्ती रहे। यह अस्पताल गंगा के किनारे है। इस अस्पताल की तारीफ में वे लिखते हैं:
“पटना मेडिकल कालेज अस्पताल दवा-दारू, पथ्य-पानी ठीक-ठाक दे या न दे – रोगियों को गंगाजी की शुद्ध और पवित्र हवा देता है। … हवा के अलावा मैं लेट-लेटे अपने काटेज के कमरे की एक खिड़की के रंगीन कांच पर दिनभर गंगा में होने वाली हरकतों को – स्टीमर और नावों के चलचित्र देखा करता था। कभी अघाया नहीं। मेरा ख्याल है, गंगा के तट पर कहीं कोई अस्पताल नहीं है, पटना के सिवा।“
Amar Ujala, 30 January 2022
आगे पढिए: गंगा बहती हो क्यों – पार्ट 3 ; छुक-छुक करती घाट गाड़ी
पिछला हिस्सा: गंगा बहती हो क्यों – पार्ट 1 ; स्मृति के पुल

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5 Replies to “स्मृति के पुल : गंगा बहती हो क्यों . . . 2”