
Ganga and her people – 1
NK SINGH
Published in Amar Ujala 23 January 2022
तब गंगा में लाशें नहीं तैरा करती थीं। स्टीमर चला करते थे। पटना में गंगा पर पुल बनने के बाद स्टीमर की यात्रा का रोमांस जाता रहा। पर आज भी जब गंगा टपने के लिए इस पुल से गुजरते हैं, नजर बरबस पहलेजा घाट की तरफ घूम जाती है।
वहाँ से किसी जमाने में ये स्टीमर चला करते थे। कानों में जहाज का भोंपू सुनाई देता है। … ए कुली, थोड़ा फुर्ती से, जहाज खुलने वाला है। छूट गया तो रात भर झूलते रहो।
अब तो पटना में गंगा टपने के लिए दो-दो पुल हो गए हैं, तीसरे की तैयारी है. पर पहले इसी पहलेजा घाट से पानी का जहाज पकड़कर ही नदी के उस पार जाया जा सकता था।
गंगा की तराई नदियों से अटी है। गंगा, गंडक, कोशी, कमला और सोन जैसी विख्यात और ’कुख्यात’ नदियां जो कभी अनाज की सौगात लाती हैं तो कभी बाढ़ की विभीषिका। बिहार में ५०० किलोमीटर का फासला तय करने वाली गंगा प्रदेश को दो फांक बांटती है। आजादी के १० साल बाद १९५९ में मोकामा में नदी पर पहला पुल बना। तबतक ये स्टीमर प्रदेश के लिए जीवन सेतु का काम करते थे.
एक समय बिहार की नदियों में स्टीमरों का जाल था. बक्सर, पटना, मोकामा, मुंगेर, भागलपुर, साहिबगंज जैसे व्यस्त घाटों पर गंगा तट दिन-रात गुलजार रहा करता था। यात्री वहाँ जहाज पकड़ने के लिए छोटी लाइन की कछुआ चाल घाट गाड़ी पर सवार होकर पहुंचते थे। भोंपू बजाकर यात्रियों को बुलाते स्टीमर नदी के किनारे खड़े देखकर उनके कदम अपने-आप तेज हो जाते थे।

गुपचुप, सिंघारा और चिनिया बदाम
रास्ते में दोनों तरफ खाने-पीने की दुकानें मिलती थीं — पूड़ी-जलेबी तलने की खुशबू, परहेजी लोगों के लिए दही-चूड़ा और सत्तू, चटोरों के लिए टमाटर की चटनी के साथ सिंघारा और साथ में मिठाई। आप खुशकिस्मत हों तो आत्मा की गहराइयों तक उतरने वाला हाजीपुर का प्रसिध्द चिनिया केला भी नसीब हो जाता था।
इन दुकानों के बीच में रामदाना की लाई, चनाजोर गरम और गुपचुप के खोमचे होते थे। कदम-कदम पर पान-सिगरेट की गुमटियाँ। चाय की केतली से उठती भाफ तलब तेज कर देती थी। कभी उधर से आने वाला स्टीमर लेट हो तो बालू में पालथी मारकर चिनिया बदाम खाते रहो.
इन दुकानों पर आप बच्चों के लिए खिलौने खरीद सकते थे। मनिहारी की दुकानों पर औरतें सास की नजर बचाकर तरह-तरह के सामान खरीद सकती थीं — टिकुली-सिंदूर, रंग-बिरंगे फुदने, रिबन और चूड़ी-लहटी ही नहीं, स्नो-पाउडर भी। कटिहार के पास तो एक घाट का नाम ही है मनिहारी घाट। कुल मिलाकर एक अच्छा-खासा बाजार। गजेटियर बताते हैं कि ये घाट कभी व्यापार-व्यवसाय के व्यस्त केंद्र होते थे।
गंगा की अथाह जलराशि पर तैरते इन जहाज़ों की अपनी ही एक दुनिया थी. यात्रिओं से खचाखच भरे ये दो मंजिला स्टीमर सर्दियों में भाप और कुहासे में लिपटे रहते और गर्मियों में कोयले के धुंए में. अनुभवी पैसेंजर बैठने के लिए स्टीमर का वह हिस्सा चुनते थे जहाँ कोयले के कण कम आते थे.
पटना में महेन्द्रू घाट से हमारे बी.एन.कालेज का हॉस्टल कुछ फर्लांग की दूरी पर ही था. सामान हो तो रिक्शा पकड़ो, और न हो तो पैदल भी चले जाओ. स्टीमर से गंगा टपने में एक-डेढ़ घंटे लग जाते थे, ज्यादा भी अगर नदी में बाढ़ हो.

मेरे साजन हैं उस पार . . .
इस यात्रा के दौरान अक्सर बंदिनी का आखिरी दृश्य आंखों के सामने तैर जाता था. आपने बंदिनी तो देखी ही होगी — सिनेमा के परदे पर बिमल राय की वह अमर कलाकृति. मेरी तरह शायद आपके ज़हन में भी फिल्म का वह आखिरी दृश्य हमेशा के लिए अंकित हो गया होगा.
नदी का विस्तृत पाट. किनारे कोयले का धुंआ उगलता विशाल स्टीमर. दूसरी तरफ बिछी पटरी पर खड़ी रेलगाड़ी और उसका भाप छोड़ता इंजन. बीच में ज़नाना और मर्दाना हिस्सों में बंटा झोपड़ीनुमा एक वेटिंग हाल.
टिमटिमाती रोशनी के बीच रेत पर इधर से उधर जा रहे लोगों के धुंधले चेहरे. एक तरफ स्टीमर अपना भोंपू बजाकर बीमार अशोक कुमार को बुला रहा है, दूसरी तरफ बंदिनी नूतन की रेलगाड़ी की सीटी बज रही है. और, उस स्वप्निल माहौल में ‘गुडलक टी हाउस’ से उठती सचिन दा की आत्मा की गहराइयों को छूने वाली आवाज — ओ रे मांझी, मेरे साजन हैं उस पार…
उस जहाज पर सचिन दा तो कभी नहीं मिले, पर कोई न कोई सूरदास अपनी डफली बजाकर डेढ़ घंटे के उस सफ़र को छोटा बना देते थे. सही जगह और सही समय पर संगीत सुनें तो सोनू निगम भी भीमसेन जोशी लगने लगते हैं.
Amar Ujala, 23 January 2022
आगे पढिए : गंगा बहती हो क्यों – पार्ट 2 ; पटना में 62,000 नौकाएं

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Yes, that is the beauty of internet.
रंग बिरंगे फुदने चूड़ी लगते स्नो पाउडर । वाह मनिहारी बाजार में पहुंचा दिया आपने।
Thanks
जब भी नजर के सामने यह आता है पढ़े बिना नहीं रहा जाता तीसरी बार पढ़ा हैं ।
ताजगी बरकरार हैं
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