
Schedule Tribes: Gandhi Centenary and our five crore forest dwellers
NK SINGH
यदि प्रदर्शनों और आंदोलनों से ही समस्या की गहराई को आँका जाए तो कहा जा सकता है कि भारत में आदिवासियों कि कोई समस्या नहीं है और यदि है भी तो वह (कोई) ज्यादा गहरी नहीं है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि भारत में बसने वाले इन पाँच करोड़ वनवासियों की समस्या बहुत गहरी है.
प्रत्येक प्रादेशिक सरकार को जंगलों से लाखों रुपए की आय होती है। यह बात जितनी सही है उतनी ही सही यह बात भी है कि जंगलों में बसने वाले इन आदिवासियों के घर कई-कई दिन हांडी नहीं चढ़ती।
इन आदिवासियों को भी अब धीरे-धीरे यह बात समझ में आती जा रही है कि इस देश में बिना चीखे-चिल्लाए, यानि बिना प्रदर्शन या आंदोलन किए किसी को कुछ नहीं मिलता। कहीं-कहीं छोटे-छोटे आंदोलन के छिटपुट समाचार भी सुनाई पड़ते हैं।
छोटानागपुर के आदिवासी सदियों से चली आ रही समांतवादी परंपरा के शिकार हैं। इन पहाड़ियों में प्राकृतिक संपदा का भंडार है, लेकिन यहाँ बसने वाले आदिवासियों के लिए केवल अभाव और दारिद्रय का ही भंडार है।
यहाँ भारत का 45 प्रतिशत कोयला, संसार का 60 प्रतिशत एवं भारत का 85 प्रतिशत अबरक उत्पादन होता है, यहाँ बाक्सईट है, लाख है, चीनीमिट्टी है, मैगनीज़ है, जस्ता है, तांबा है और संसार की सबसे कीमती वस्तु यूरेनियम भी है। और इस सबके बावजूद यहाँ बसने वालों के लिए दो जून खाना नहीं है। कैसी विडंबना है!
सरकार का ध्यान आदिवासियों के कष्ट निवारण की ओर गया है। छोटानागपुर के लिए एक स्वतंत्र शासन बोर्ड की स्थापना भी कर दी गई है। औद्योगीकरण, आवागमन के साधन, जनजाति कल्याण योजनाएं और सामुदायिक विकास योजनाओं से कुछ सुधार हुआ है।
लेकिन परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि यदि यही रफ्तार रही तो सौ वर्ष बाद भी ये लोग पिछड़े हुए ही कहलाएंगे।
Excerpts from Dinman, 30 November 1969

